Thursday, October 11, 2012

नींद




नींद, गयी  कहीं,
लो फिर उड़ गयी,
पेड़ के पत्तों पर,
ठंडी हवा में
खुद ही सो गयी ।

ढूंडा मैंने हर जगह
कम्बल के अन्दर,
बिस्तर के नीचे,
कही नहीं मिली,
गुम ही हो गयी ।

खुद गयी, ले गयी
चैन मेरा,
सपने भी गए,
कमबख्त क्यों वो,
उनको भी ले गयी ।

रात, अँधेरी काली
और ये तन्हाई
और कुछ यादें,
ये ही मेरी साथी,
अब तो हो गयी ।

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